अपने संस्कारों को बच्चों के हाथों आधुनिकता और फूहड़ता की बलि न चढ़ने दें
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भी भी समय है – बच्चों को अपना बाप न बनने दें
इस दिखावे की दुनिया में आजकल कई लोग उच्च स्तर की निम्नस्तरीय सोच को अपना आदर्श बना रहे हैं। सोशल मीडिया और पॉडकास्ट जैसे माध्यमों पर जो कुछ चल रहा है, उसकी कल्पना माता-पिता ने कभी नहीं की होगी। लेकिन रणवीर अलाहाबादिया के हालिया पॉडकास्ट ने इस भ्रम को तोड़ दिया। अनजाने में ही सही, उन्होंने आज के माता-पिता को एक आईना दिखा दिया कि उनके बच्चों की सोच आखिर कहां तक पहुंच चुकी है, और इसका जिम्मेदार कौन है?
हम अपनी गलती स्वीकार करते हैं। हमने अपने बच्चों को मॉडर्न बनाने के चक्कर में उन्हें संस्कारों से दूर कर दिया। हमने अपने मोह, प्यार और दुलार में आंखें बंद कर लीं और उन्हें भौतिक सुख-सुविधाओं की ऐसी दुनिया दे दी, जहां नैतिकता और संस्कृति कहीं पीछे छूट गई। आधुनिकता की दौड़ में हमने अपनी संस्कृति, शर्म और मर्यादा को बहुत पीछे छोड़ दिया।
अब सवाल उठता है उन युवाओं का, जो खुद को "यूथ आइकन" समझते हैं। उन्हें शायद इस बात का अंदाजा भी नहीं कि उनकी आने वाली पीढ़ी कितनी खतरनाक होगी। आज हमें सिर्फ चिंता करने की नहीं, बल्कि चिंतन करने की जरूरत है।
बड़ों से बड़ा बनने की होड़ – कितनी जायज?
सिर्फ एडल्ट हो जाना यह नहीं कि आप अपने बड़ों से भी बड़े हो गए। लेकिन जब कोई व्यक्ति सिर्फ प्रसिद्धि और लोकप्रियता के लिए मर्यादा की सारी सीमाएं लांघ जाता है, तो यह समाज के लिए चिंता का विषय बन जाता है।
हम उसी दौर के लोग हैं, जो अपने पिता के दोस्त को दूर से आता देख सिगरेट फेंक देते थे। लेकिन आधुनिकता की अंधी दौड़ में अब माता-पिता अपने बच्चों के साथ बैठकर शराब पीने को शान समझने लगे हैं। एक हद तक समय के अनुसार बदलाव ठीक है, लेकिन संस्कारों की डोर तोड़कर बच्चों को मनमर्जी की पतंग उड़ाने देना, जो अब माता-पिता के बेडरूम तक पहुंच चुकी है, कहां तक सही है?
माता-पिता के लिए कुछ जरूरी बातें
इस घटना को देखते हुए, माता-पिता को सुधारक की दृष्टि से कुछ महत्वपूर्ण बातें समझनी चाहिए—
- बच्चों की भौतिक सुख-सुविधाओं को अपनी दुविधा न बनने दें।
- मोह, प्यार और दुलार में आंखें बंद न करें।
- विशेष रूप से माताएं सतर्क रहें—अपने बच्चे की गलती को अपने पति से न छुपाएं।
- विश्वास करें, लेकिन अंधविश्वास नहीं।
आज के दौर में माता-पिता को सतर्क रहने की जरूरत है। बच्चों को स्वतंत्रता देना जरूरी है, लेकिन संस्कारों की कीमत पर नहीं। अभी भी समय है—संस्कृति बचाइए, शर्म को मरने मत दीजिए!
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