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में और मेरे दोस्त-एक चिंतन

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 कलयुग में दोस्त(दो+,अस्त,) स्दोस्ती(जहा खत्म हो( दो की हस्ती) साथियों जहा तक मेरे जीवन में मेरा हर मित्र मेरी एक अमानत हे।अगर मित्र हे तो अच्छा बुरा देखने का आपको कोई राइट नही सिर्फ दो* शरीर दो विचार दो भावनाएं स्वार्थ का अस्त *हो जाए वोह हे दो*+अस्त*=दोस्त दोस्त सही हो या गलत उसका साथ देना सच्चे दोस्त की पहचान हे कर्ण&कृष्णा सुदामा द्वापर युग परंतु यह कलयुग हे यहां दोस्ती से ज्यादा स्वार्थ ,तर्क ,,वितर्क ,में सही था,तू गलत था मेने तेरे लिए यह किया,तूने क्या किया यह सब बातो का चिंतन एक मत भेद पैदा कर पाता हे सच्चे दोस्तो की दोस्ती को नही।मेरा मानना हे अगर किसी दोस्त के संघर्ष को देखोगे तो बुराई भूल जाओगे।इंसान का सबसे बड़ा गुनाह है की दोस्ती में प्रतिस्पर्धा वो भले किसी की भी हो, यहा तक दोस्ती का निजीकरण  कद,पद,आर्थिक संपन्नता शोहरत के आधार पर यह दुनिया हे ,दुनिया में कद पद आर्थिक सफलता शोहरत सब समय समय पर बदलते रहते हे।आज की तारीख में मेरा दोस्त मेरा शुभचिंतक हे की नही यह  सोचना पड़ जाए  ।लेकिन अगर दोस्त के बारे में इतना सोचना पड़े।दोस्ती में जात पात धर्म कद पद के लिए कोई जगह नही